लोक अदालत का शाब्दिक अर्थ है जनता की अदालत। लोक अदालत एक ऐसा मंच है जहां पर ऐसे मामले जो न्यायालय में लंबित है या ऐसे मामले जो अभी अदालत में मुकदमे के रूप में नहीं आए हैं पर उन विषयों में दो बातों के बीच विवाद की शुरुआत हो चुकी है या जो आगे चलकर विवाद बन सकती है उसको सौहार्दपूर्ण ढंग से निपटाए जाते हैं अर्थात दोनों पक्षों के बीच उत्पन्न हुए विवादों का समाधान लोक अदालत में कराया जाता है।
दूसरे शब्दों में लोक अदालत को हम इस प्रकार भी परिभाषित कर सकते हैं ____
*लोक अदालत न्याय व्यवस्था का एक पुराना स्वरूप है जो कि प्राचीन भारत में प्रचलित था और इसकी वैधता आधुनिक युग में समाप्त नहीं हुई है यह व्यवस्था गांधीवादी दर्शन पर आधारित है या वैकल्पिक विवाद समाधान का एक अभिन्न अंग है भारतीय अदालत में लंबित मुकदमों के दबाव से दबी हुई है और नियमित न्यायालयों में अतिथियों के लिए लंबी खर्चीली और श्रम साधक प्रक्रिया है इसलिए अदालतों में छोटे-छोटे मामले को निपटाने में भी कई साल लग जाते हैं, इसलिए लोक अदालत त्वरित तथा कम खर्चीली वैकल्पिक समाधान प्रदान करती है।
लोक अदालत की कार्यवाही आपसे सुलह कराने की होती है इसलिए दोनों पक्षों में से किसी की भी हार या जीत नहीं होती है इसलिए दोनों पक्षों के बीच कोई भी विवाद नहीं रह जाता है।
लोक अदालत का प्रयोग भारत में एक आसान कम खर्चीला तथा अनौपचारिक विवाद समाधान के वैकल्पिक रूप में स्वीकृति पा चुका है।
यह आम आदमी को अनौपचारिक संस्थ तथा त्वरित न्याय दिलाने का एक ऐसा मंच है जिसमें ऐसे मामलों को लिया जाता है जो अदालतों में लंबित है तथा ऐसे मामले को भी लिया जाता है जो अभी तक अदालतों तक नहीं पहुंचे हैं और बातचीत,मध्यस्था, सहज बुद्धि, तथा दोनों पक्ष के वादियों की समस्याओं के प्रति मानवीय दृष्टिकोण अपनाकर विशेष रूप से प्रशिक्षित एवं अनुभवी विधि अभ्यासियो द्वारा वाद को निपटाया जाता है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद पहला लोक अदालत शिविर 1982 में गुजरात में आयोजित किया गया था और यह पहल विवादों के निपटाने में बहुत सफल हुई। फल स्वरूप लोक अदालतों का देश के अन्य हिस्सों में प्रसार होने लगा अपने शुरुआती दिनों में अव्यवस्था एक शिक्षित एवं समझौता कार्य एजेंसी के रूप में कार्य कर रही थी और इसके निर्णयों के पीछे कोई वैधानिक पोषण नहीं था लेकिन इसकी बढ़ती लोकप्रियता को देखते हुए इसे सुरक्षा दिया गया तथा इसके द्वारा पारित फैसलों को वैधानिक पृष्ठ पोषण देने की मांग उठी, और किसी कारण से लोक अदालत को वैधानिक दर्जा प्रदान करने के लिए वैधानिक सेवाएं प्राधिकरण अधिनियम 1987 (legal service authority act ) पारित किया गया।
*लोक अदालतों के कार्य_____
वैधानिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम अधिनियम लोक अदालत के आयोजन तथा इसके कार्यों के संबंध में निम्नलिखित प्रावधान करता है__
*राज्य वैधानिक सेवाएं प्राधिकरण या जिला वैधानिक सेवाएं प्राधिकरण या सर्वोच्च न्यायालय विधिक सेवा प्राधिकरण अथवा उच्च न्यायालय विधिक सेवा प्राधिकरण लोक अदालतों का आयोजन ऐसे समयांतर का अपने क्षेत्राधिकार का उपयोग करते हुए ऐसे स्थानों पर कर सकता है जिसे वो उपयुक्त समझता है।
*जब लोक अदालत आयोजित किया जाता है तो उस क्षेत्र के प्रत्येक लोक अदालत में उतनी संख्या में सेवारत अथवा सेवा निर्मित न्यायिक अधिकारियों तथा उस इलाके के अन्य व्यक्ति शामिल होंगे जितने के लोक अदालत का आयोजन करने वाली एजेंसी दृश्य करती है साधारण क एक लोक अदालत में अध्यक्ष के रूप में एक न्यायिक अधिकारी तथा एक वकील व सामाजिक कार्यकर्ता सदस्य के रूप में होते हैं।
*लोक अदालत के अधिकार_________
लोक अदालत दोनों पक्षों के बीच समझौता कराने का निश्चय करती है_
(1) जब कोई भी बात जो किसी न्यायालय में लंबित हो
(II) कोई भी मामला जो किसी न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता हूं लोक अदालत के समक्ष नहीं लाया जाएगा ।
इस प्रकार लोक अदालत केवल न्यायालय में लंबित मामलों को ही नहीं बल्कि उन मामलों का भी निपटारा कर सकती है जो कोर्ट में अभी नहीं पहुंचे हैं।
विवाह संबंधी/पारिवारिक विवाद, अपराधिक मामले (compoundable offence) भूमि अधिग्रहण संबंधी, मामले श्रम विभाग ,कर्मचारी क्षतिपूर्ति के मामले, बैंक वसूली के मामले ,पेंशन मामले, आवास बोर्ड एवं मलिन बस्ती क्लीयरेंस संबंधी मामले, आवास वित्त संबंधी मामले उपभोक्ता शिकायत के मामले टेलिफोन बिल संबंधी मामले, नगरपालिका संबंधी मामले ,मकान कर सहित मोबाइल कंपनी या इंटरनेट से संबंधित विवाद, आदि मामले लोक अदालत द्वारा सुलझाए जाते हैं! लेकिन लोक अदालतों का उन मामले में कोई न्यायिक अधिकार नहीं होगा जो किसी ऐसे अपराध से जुड़े हैं जो किसी कानून के अंतर्गत समझौता योग्य नहीं है नहीं है दूसरे शब्दों में ऐसे अपराध जो नॉन कंपाउंडेबल हैं किसी भी ऐसे कानून के तहत इस अदालत के अधिकार क्षेत्र में नहीं आते हैं।
(III) अदालत के समक्ष लंबित कोई भी मामला लोक अदालत को संदर्भित किया जा सकता है यदि:___
(a) यदि वद का पक्ष विवाद का समाधान लोक अदालत में करना चाहते हैं!
(b) वादियों में से कोई एक न्यायालय में मामले को लोक अदालत में रखने का आवेदन देता है।
(c) यदि न्यायालय को लगता है कि मामला लोक अदालत के संज्ञान में लाए जाने के लिए उपयुक्त है मुकदमा कोर्ट में फाइल जाने के पहले के किसी विवाद के मामले को लोक अदालत आयोजित करने वाली एजेंसी द्वारा समाधान के लिए लोक अदालत को संदर्भित किया जा सकता है अगर संबंधित राज्यों में से किसी एक को इस आशय का आवेदन प्राप्त होता है।
(I V) लोक अदालत को वही शक्तियां प्राप्त होती है जो के सिविल कोर्ट को कोड आफ सिविल प्रोसीजर 1908 के अंतर्गत प्राप्त होती है जबकि निम्नलिखित मामलों में मुकदमा चलाना हो:______
(a) किसी गवाह को समन भेजकर बुलाना और शपथ दिलवा कर उसकी गवाही लेना।
(b) किसी दस्तावेज को प्राप्त एवं प्रस्तुत करना।
(c) शपथ पत्रों पर साक्ष्यों के प्राप्ति!
(d) किसी भी अदालत या कार्यालय से सार्वजनिक अभिलेख अथवा सामग्री की मांग करना तथा
(e) अन्य विनिदृष्ट सामग्री।
**लोक अदालत की कार्यवाही:__
लोक अदालत को अपने समक्ष प्रस्तुत किए गए मामलों के निस्तारण की अपनी पद्धति व विनिदृष्ट करने की समुचित शक्ति होगी। साथ ही लोक अदालत में प्रस्तुत कार्यवाही को भारतीय दंड संहिता 1807 में निर्धारित अर्थों में अदालती कार्यवाही माना जाएगा तथा प्रत्येक लोक अदालत आपराधिक प्रक्रिया संहिता 1973 के उद्देश्य से एक सिविल कोर्ट माना जाएगा।
लोक अदालत का निर्णय सिविल कोर्ट के हुकुमनामे अथवा किसी भी अन्य अदालत के किसी भी आदेश की तरह ही मान्य होगा ,लोक अदालत द्वारा गया फैसला अंतिम फैसला होगा तथा सभी पक्षों पर बाध्यकारी होगा और लोक अदालत के इस फैसले के विरुद्ध किसी भी अदालत में कोई अपील नहीं होगी।
**लोक अदालत के लाभ:_____
लोक अदालत के निम्नलिखित लाभ है___
*इसमें कोई अदालती फेस (कोर्ट fee) नहीं लगती है और अगर कोर्ट फी का भुगतान कर दिया गया होता है तो लोक अदालत में मामले निपटाने के बाद राशि लौटा जाएगी!
*लोक अदालत की प्रमुख विशेषता क्या है कि या एक लचीली प्रक्रिया तथा विवादों की त्वरित सुनवाई होती है लोक अदालत में दावा का आकलन करने के लिए सिविल प्रक्रिया संहिता तथा साक्ष्य अधिनियम जैसे पद्धति मूलक कानूनों के सख्त उपयोग की जरूरत नहीं पड़ती।
*यह सभी पक्ष अपने वकीलों के माध्यम से न्यायाधीश से सीधे संवाद कर सकते हैं जो कि नियमित न्यायालय में संभव नहीं है!
*लोक अदालत पर निर्णय संबद्ध पक्षों पर बाध्यकारी होती है और इसकी हैसियत सिविल कोर्ट के निर्णय के बराबर होती है साथ ही गैर अपीलीय होती है जिससे विवादों के अंतिम समाधान के लिए समाधान में निलंबन नहीं होता!
*अधिनियम में प्रावधान इस उपरोक्त सावधानियों के होने से लोक अदालत में मुकदमा में उलझे लोगों के लिए वरदान है क्योंकि यहां विवादों का समाधान शीघ्र ने शुल्क तथा सौहार्दपूर्ण ढंग से हो जाता है।
*वैकल्पिक विवाद समाधान (Alternative dispute resolution _ADR) भारत के विधि आयोग ने वैकल्पिक विवाद समाधान के के लोगों को संक्षेप में इस प्रकार प्रस्तुत किया है या कम खर्चीला है तथा या कम समय लेता है या तकनीकी उलझन उसे मुक्त है और कानूनी न्यायालय के बराबर है। सम्बद्ध पक्ष अपने वैचारिक मतभेदों पर खुलकर चर्चा करते हैं बिना किसी खुलासे के भय के जैसा के कानूनी न्यायालयों में होता है,लोगों को यह अनुभूति होती है कि उनके बीच कोई हार या जीत नहीं हुई है, तब भी उनकी शिकायतों का निराकरण होता है और संबंध भी सुरक्षित रहते हैं।